कहाँ छुपी बैठी है वो पत्रकारिता…….?

आनन्द प्रकाश शुक्ल

लखनऊ। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाबाद के पास फतेहपुर के हथगांव में श्री जयनारायण और गोमती देवी के घर हुआ था। विद्यार्थी जी के पिता श्री जयनारायण मध्यप्रदेश के ग्वालियर में मिडिल स्कूल के टीचर थे। उनके पिता की उर्दू और फारसी में काफी रुचि थी। इसी के चलते गणेश शंकर विद्यार्थी पर भी इसका काफी असर पड़ा ।

विद्यार्थी की शुरुआती शिक्षा अपने पिता की देखरेख में ही हुई।उन्होंने अच्छे अंकों के साथ हाईस्कूल परीक्षा पास की लेकिन आर्थिक स्थिति खराब होने के चलते वे अपनी आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। वह सेल्फ स्टडी करते रहे, पत्रकारिता में रुचि के चलते गणेश शंकर विद्यार्थी कलम की ताकत को भली-भांति समझते थे।गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के एक करेंसी ऑफिस में क्लर्क के तौर पर काम भी करना शुरू किया। लेकिन ब्रिटिश कर्मचारियों के साथ उनकी नहीं बन पाई,उन्हें वहां से नौकरी छोड़नी पड़ी। उसके बाद वे कानपुर में एक हाईस्कूल में बतौर टीचर जुड़े। लेकिन, पत्रकारिता को लेकर उनकी रुचि कभी कम नहीं हुई।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी का योगदान अजर-अमर है। उन्होंने अपनी लेखनी से अंग्रेजों की नींद भर नहीं उड़ाई बल्कि गांधीजी के अहिंसावादी विचारों और हमारे वीर क्रांतिकारियों का समान रूप से समर्थन भी किया।

वह चुनिंदा ऐसे पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कलम और धारदार लेखनी को हथियार बनाकर आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी।वे जमींदारों के अत्याचार व ब्रिटिश शासकों दोनो के खिलाफ अपनी धारदार लेखनी का इस्तेमाल करते थे ।वे ऐसे क्रांतिकारी थे जो हिन्दी और उर्दू अखबार ‘कर्मयोगी’ और ‘स्वराज्य’ दोनों में अपने लेख लिखा करते थे।

अपने संपादकीय की मदद से वह जल्द ही किसानों और मजदूरों की आवाज़ बने । गणेश शंकर विद्यार्थी ने चंपारण इंडिगो प्लांटेशन के मजदूरो, कानपुर के मिल श्रमिकों और बाहर से आकर कुली का काम कर रहे लोगों के पक्ष में वकालत भी की विस्फोटक लेखों के चलते गणेश शंकर विद्यार्थी पर काफी जुर्माना भी लगाया गया और पांच बार जेल भी भेजा गया। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी पर इस कार्रवाई का कोई असर नहीं पड़ा।यही कारण था कि उन्हें कई बार जेल की यातनाएं भी सहनी पड़ी। लेकिन अंग्रेजों का यह दबाव उन पर काम ना आया और उन्होंने अपनी क्रांतिकारी लेखनी को जारी रखा। अपने तीखे शब्दों की लेखनी से वह अंग्रेजों की नीति पर अंत तक धावा बोलते रहे।

 

आज हमारे समाज को ऐसे ही पत्रकारों की आवश्यकता महसूस होने लगी है,जिसे पूरा करना हम सबके लिए अनिवार्य बनता जा रहा है।

साम्प्रदायिक आग बनी विद्यार्थी की मौत का कारण

मार्च 1931 में कानपुर के चौबेगोला में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने साम्प्रदायिक सौहार्द और शांति बनाने का काफी प्रयास किया । लेकिन सफल नहीं हो पाए ,हजारों निर्दोष लोगों की जान बचाने के लिए वह दंगे की आग में कूद पड़े। 25 मार्च 1931 को 40 वर्ष की आयु में जिस वक्त वे दंगा प्रभावित इलाके का दौरा कर रहे थे, भीड़ की तरफ से उन पर हुए अचानक हमले में उनकी मौत हो गई।

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