
रहठा ग्राम में हुई प्रशासनिक कार्रवाई ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। एक तरफ शासन का कहना है कि यह कार्रवाई शासकीय भूमि को मुक्त कराने के लिए थी, तो दूसरी ओर 60 वर्षों से उसी भूमि पर रह रहे परिवार का दर्द है, जो अब बेघर हो गया है।
तहसीलदार करकेली अपने दलबल और पुलिस बल के साथ पहुंचे और शासकीय भूमि क्रमांक 433/3 के एक हिस्से पर बने मकान को ध्वस्त कर दिया। प्रशासन का कहना है कि यह मकान अवैध रूप से शासकीय भूमि पर बना था।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या 60 साल से बसे किसी परिवार को मात्र एक दिन की नोटिस देकर उजाड़ देना न्यायसंगत है?
विश्लेषण के दृष्टिकोण से देखें, तो यह मामला दो पक्षों में बंटा हुआ है —
पहला, शासन का भूमि संरक्षण का कर्तव्य, और
दूसरा, मानवीय संवेदना और प्रक्रिया की न्यायिकता।
यदि कोई भूमि वास्तव में शासकीय है, तो उस पर अतिक्रमण हटाना प्रशासन का कर्तव्य है।
परंतु जब कोई परिवार पीढ़ियों से उस भूमि पर रह रहा हो, कर चुका चुका रहा हो, और मकान कर्ज लेकर बनाया हो — तो प्रशासन को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
रहठा की इस घटना ने यह भी दिखाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि स्वामित्व और लीज़ संबंधी प्रक्रियाएँ कितनी जटिल हैं।
कई परिवार दशकों से आवेदन कर रहे हैं, पर उन्हें स्पष्ट स्वामित्व नहीं मिल पाता।
ऐसे में जब अचानक नोटिस जारी होता है, तो वे कानूनी रूप से अपने अधिकार साबित भी नहीं कर पाते।
यह मामला बताता है कि विकास और कानून के बीच “संवेदना” का संतुलन बनाए रखना कितना आवश्यक है।
कानून अपनी जगह सही हो सकता है, पर यदि उसकी प्रक्रिया में इंसानियत खो जाए, तो समाज में असंतोष बढ़ता है।




