अन्यइतिहासउत्तर प्रदेशमनोरंजनराष्ट्रीयलखनऊसम्पादकीय

लखनऊ में आदिवासी संस्कृति का उत्सव—बिरसा मुंडा जयंती पर हुआ आकर्षक जनजातीय फैशन शो।

संस्कृति, परंपरा और आकर्षण का संगम—बिरसा मुंडा जयंती पर लखनऊ में ट्राइबल फैशन शो।

“परंपरा, पहचान और रंगों का उत्सव: लखनऊ में जनजातीय संस्कृति का अप्रतिम महाकुंभ”

बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित जनजाति भागीदारी उत्सव का चौथा दिन भारतीय जनजातीय संस्कृति की विविधता, संपन्नता और जीवंतता का अद्भुत दर्पण बनकर उभरा। रविवार को आयोजित भव्य जनजातीय फैशन शो ‘परिधान प्रवाह’ कार्यक्रम का मुख्य केंद्र था, जिसने दर्शकों को राष्ट्रीय जनजातीय परंपराओं की अनूठी सौंदर्य-सम्पदा से रूबरू कराया। यह आयोजन केवल एक फैशन शो नहीं था, बल्कि भारतीय जनजातीय जीवन के रंगों से सजा सांस्कृतिक संगम था, जिसमें परिधान, आभूषण, वाद्ययंत्र, लोकगीत, नृत्य और लोककलाओं का समग्र मिश्रण देखने को मिला।

फैशन शो का निर्देशन थारू जनजाति की प्रसिद्ध कलाकार तारा चौधरी ने किया, जिनकी कलात्मक दृष्टि और सांस्कृतिक समझ ने इस कार्यक्रम को एक विशिष्ट आयाम दिया। उन्होंने पारंपरिक जनजातीय परिधानों को आधुनिक मंच भाषा के साथ इस प्रकार जोड़ा कि मंच पर जनजातीय पहचान का सार पूरी कलात्मकता और भव्यता के साथ प्रदर्शित हुआ। उनकी प्रस्तुति ने यह संदेश दिया कि परंपरा और आधुनिकता विरोधी नहीं, बल्कि साथ मिलकर एक नया सौंदर्य रच सकते हैं।

रैंप प्रस्तुति की शुरुआत जम्मू क्षेत्र से हुई, जहाँ के कलाकार पारंपरिक पहाड़ी जनजातीय पोशाकों और आभूषणों में मंच पर उतरे। उनकी चाल, उनकी अंगभंगिमाएँ और वाद्ययंत्रों की धुनें दर्शकों को हिमालयी जीवन की सादगी और पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र से परिचित कराती रहीं। इसके बाद रैंप पर क्रमशः गोवा, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और राजस्थान की जनजातियों ने अपनी-अपनी सांस्कृतिक धरोहरों से सजा प्रस्तुति दी। हर कलाकार की पोशाक अपने आप में एक सांस्कृतिक कथा को कह रही थी—कहीं प्रकृति की पूजा, कहीं ऋतुओं का परिवर्तन, कहीं सामूहिकता की भावना और कहीं जीवन के रीतिरिवाज।

राजस्थान के सहरिया समुदाय की प्रस्तुति इस कार्यक्रम का एक अविस्मरणीय अध्याय बन गई। शनि धानुक के निर्देशन में सहरिया स्वांग ने दर्शकों को जनजातीय अध्यात्म और प्रकृति की गहरी भावना से जोड़ दिया। कलाकारों के शरीर पर जनजातीय पेंटिंग, मोरपंखों से सजी विशिष्ट पोशाकें और ‘राम रंग में रंगे’ जैसे गीतों पर उनकी समर्पित प्रस्तुति ने पूरे वातावरण को दिव्यता से भर दिया। यह केवल मंचीय कला नहीं थी, बल्कि जनजातीय आत्मा की अभिव्यक्ति थी—जहाँ हर कदम, हर रंग प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान को दर्शा रहा था। वानर रूप में सजे कलाकारों की शैली और उनकी नृत्यात्मक प्रस्तुतियाँ दर्शकों को लोककथाओं और परंपरागत कथानकों की जीवंत झलक दिखाती रहीं।

सोनभद्र जिले के सुरेश कुमार खरवार के नेतृत्व में अगरिया और चेरो जनजाति के कलाकारों की प्रस्तुति ऊर्जा, भावनाओं और श्रद्धा का अद्भुत मिश्रण थी। “बिरसा मुंडा बहुत महान हो” जैसे लोकगीतों पर जब उन्होंने सामूहिक प्रस्तुति दी तो दर्शकों में उत्साह और गर्व की भावना उमड़ पड़ी। यह अनुभूति केवल एक प्रदर्शन नहीं थी, बल्कि स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के प्रति जनजातीय समुदायों की ऐतिहासिक स्मृतियों और भावनात्मक संबंध का सशक्त प्रकटीकरण था।

इसके बाद मंच पर सुक्खन द्वारा निर्देशित डोमकछ नृत्य ने पारंपरिक जीवनशैली की झलक पेश की। यह नृत्य माघ महीने में महुआ गिरने के बाद होने वाली जनजातीय विवाह परंपरा पर आधारित है। कलाकारों ने विवाह से जुड़ी रस्मों, आनंद, सामूहिक उत्सव और प्राकृतिक परिवेश के साथ जनजातीय जीवन की सहजता को अत्यंत सुंदर रूप में दर्शाया। उनके नृत्य में जीवन के उत्सव, प्रकृति की लय और समुदाय की समृद्ध परंपरा का ऐसा सम्मिलित रूप देखने को मिला, जिसने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

कश्मीर की वादियों से आई रुबीना अख्तर और उनकी टीम ने मंच पर गोजरी लोकनृत्य ‘उदि उदि कुंजे मेरी बींणी उत्थे बैठी’ का मनमोहक प्रदर्शन किया। यह नृत्य प्रेम और भावनाओं से भरी कथा को शारीरिक अभिव्यक्ति और नृत्य ताल के माध्यम से प्रस्तुत करता है। प्रस्तुति इतनी प्रभावशाली थी कि दर्शकों को लगने लगा जैसे वे कश्मीर की घाटियों में बहते झरनों, हरियाली और प्रेम से भरी लोककथाओं के बीच हों।

इसके बाद गोवा के कृपेश गांवकर और उनकी टीम द्वारा प्रस्तुत खारबी नृत्य ने मछुआरों के जीवन और उनकी सामूहिकता की कहानी मंच पर उकेरी। कलाकारों ने नदी किनारे जाल फेंकने, मिलकर मछली पकड़ने और उत्सव के समय की खुशी को इतनी प्रामाणिकता से दर्शाया कि दर्शक गोवा के किनारों की लहरों और समुद्री हवाओं को महसूस सा करने लगे। खारबी नृत्य ने यह स्पष्ट किया कि समुद्र तट का जीवन केवल पेशा नहीं, बल्कि संस्कृति, सहयोग और उत्सव की परंपरा है।

उत्सव परिसर में लगे भोजन स्टॉल भी उतने ही आकर्षण का केंद्र रहे। रविवार होने के कारण बड़ी संख्या में लोगों ने अवधी व्यंजनों के साथ-साथ राजस्थानी दाल-बाटी-चूरमा और कई जनजातीय व्यंजनों का स्वाद लिया। यह स्टॉल जनजातीय भोजन संस्कृति की झलक भी प्रस्तुत कर रहे थे, जहाँ हर व्यंजन के पीछे एक परंपरा, एक विधि और एक सांस्कृतिक संदर्भ छिपा था।

कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश लोक एवं जनजातीय संस्कृति संस्थान के निदेशक अतुल द्विवेदी सहित कई वरिष्ठ अधिकारी और सांस्कृतिक विशेषज्ञ उपस्थित रहे। सभी ने जनजातीय समुदायों की कला, उनकी पहचान और उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के उद्देश्य से ऐसे आयोजनों की महत्ता को रेखांकित किया।

बिरसा मुंडा की जयंती पर सजा यह जनजातीय महोत्सव न केवल भारत की सांस्कृतिक विविधता का उत्सव था, बल्कि यह संदेश भी था कि देश की प्रगति और सांस्कृतिक समृद्धि में जनजातीय समुदायों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। ‘परिधान प्रवाह’ ने यह सिद्ध किया कि जनजातीय परंपराएँ केवल पहाड़ों, जंगलों या नदी किनारों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे भारत की समग्र संस्कृति का धड़कता हुआ हिस्सा हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button