सम्पादकीय

जयपुर में देर रात गोलीकांड, गैंगवार में दो लोगों को लगी गोली

वो रात, जब डर ने दस्तक दी

शुक्रवार की रात जयपुर जैसे शांत और सभ्य शहर पर जैसे अंधेरा कुछ और ही मायने लेकर उतरा था। समय था रात के करीब 12 बजे का। जिन गलियों में आमतौर पर इस वक़्त सिर्फ ठंडी हवा की सरसराहट सुनाई देती है, वहां अचानक गोलियों की तेज आवाज़ ने सबको चौंका दिया।
लोग नींद में थे, लेकिन ये आवाज़ सिर्फ सुनाई ही नहीं दी — महसूस भी हुई। जैसे डर ने दरवाजे खटखटाए हों और शहर ने अपनी चादर हटाकर घबराकर आंखें खोल दी हों।


एक मां की बेचैनी, एक बहन की रोती आवाज़

एसएमएस अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड के बाहर दो महिलाएं रोती हुई बैठी थीं। कोई उन्हें समझा नहीं पा रहा था। वे दोनों घायल हुए दो युवकों — आफताब और शाहिद — की मां और बहन थीं।
डॉक्टरों के पास जवाब कम थे, उम्मीदों की कमी नहीं, लेकिन मां की आंखों में उम्मीद से ज्यादा डर था। डर इस बात का, कि कहीं उसका बेटा सिर्फ अस्पताल में नहीं, बल्कि एक ऐसे रास्ते पर न निकल पड़ा हो, जहां से लौटना मुश्किल हो।


शहर का चेहरा, और वो भागती हुई खामोशी

जब फायरिंग हुई, कुछ लोग मौके पर थे। एक दुकानदार ने कांपती आवाज़ में बताया — “पहले तो लगा कोई पटाखा है, लेकिन फिर लगातार तीन चार धमाके हुए। लोग भागने लगे, दुकानें बंद होने लगीं, सन्नाटा फैल गया।”
उस सन्नाटे में आवाज़ नहीं थी, लेकिन डर बोल रहा था।
वो रात अचानक एक सामान्य शहर को किसी अपराध कथा की तरह महसूस कराने लगी। जैसे जयपुर अपने ही लोगों से सवाल पूछ रहा हो — “क्यों? आखिर क्यों मुझे ऐसे डर में ढकेल दिया?”


पुलिस की गाड़ियां, नीली-बत्ती और टिमटिमाती उम्मीद

जब पुलिस पहुँची, तो लंबे समय बाद इलाके में लोगों ने राहत की सांस ली। मगर सच यह भी है कि उनके चेहरों पर भरोसे से ज्यादा थकान और शिकायतें थीं।
एक बुजुर्ग ने कहा — “हमने कई बार कहा कि यहाँ देर रात कुछ बदमाश घूमते रहते हैं, शराब पीते हैं, झगड़े करते हैं, लेकिन किसी ने नहीं सुना।”
उसकी आवाज़ में गुस्सा नहीं था, बस एक फिक्रमंद पिता जैसी चिंता थी — इस शहर की चिंता।


दो ज़िंदगियाँ, दो कहानियाँ

आफताब और शाहिद — एक पढ़ाई छोड़कर छोटा कारोबार करता था, दूसरा वर्कशॉप में काम करता था। दोनों दोस्त थे, दोनों घायल हुए।
दर्दनाक बात यह है कि अब पुलिस उनकी ज़िंदगी ही नहीं, उनका अतीत भी खंगाल रही है। यह पता लगाने कि कहीं वे भी अपराध की दुनिया के किनारे पर तो नहीं?
पर शायद सच कहीं बीच में छुपा है — गरीबी, बेरोजगारी और गलत संगत के बीच।


डर सिर्फ गोलियों से नहीं, माहौल से पैदा होता है

इस घटना ने ये फिर साबित किया कि डर सिर्फ हथियार की आवाज़ से नहीं जन्मता, बल्कि उस हालत से जन्म लेता है जिसमें हम खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं।
कई परिवारों ने उस रात अपने बच्चों को गले लगा लिया। कुछ ने दरवाजों की कुंडी कई बार चेक की। कुछ ने सोचा — “क्या अब जयपुर भी सुरक्षित नहीं रहा?”


सोशल मीडिया पर दर्द, सवाल और बेचैनी

सोशल मीडिया पर उस रात सिर्फ खबर नहीं फैली, बल्कि बेचैनी, डर और सवाल भी फैल गए।
किसी ने लिखा — “जयपुर में भी गैंगवार? ये कब से शुरू हुआ?”
किसी ने लिखा — “अगर शहरों में भी गोलियों की आवाज़ गूंजने लगे, तो गांव और कस्बों को क्या उम्मीद?”
लोग सिर्फ खबर नहीं पढ़ रहे थे, बल्कि अपने शहर का भविष्य देख रहे थे।


पुलिस के प्रति नाराजगी, लेकिन पूरी तरह अविश्वास नहीं

लोग नाराज थे — यह बात साफ थी। लेकिन ये भी सच था कि वे पूरी तरह से पुलिस को दोषी नहीं ठहरा रहे थे।
उनका कहना था — “गलती सिर्फ पुलिस की नहीं, माहौल की भी है। अपराधी बढ़ रहे हैं, लेकिन मुक़ाबला करने वाली ताकत और व्यवस्था उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ रही।”
यानी लोग सिर्फ सुरक्षा नहीं चाहते, वह व्यवस्था भी चाहते हैं — जो उनकी रातों की नींद शांत रख सके।


वो बच्चा जिसने पूछा – “मम्मी, गोलियां क्यों चली?”

एक महिला ने बताया कि जब रात को गोलियों की आवाज आई, उसका आठ साल का बेटा डरकर पूछने लगा — “मम्मी, ये आवाजें क्या हैं? कोई पटाखा चला रहा है?”
उन्होंने उसे चुप कराया, लेकिन बच्चा फिर बोला —
“अगर ये पटाखे नहीं, गोलियां थीं… तो क्या ये हमारे शहर में भी चलती हैं?”
मां के पास उस सवाल का जवाब नहीं था। शायद प्रशासन के पास भी नहीं।


जयपुर शहर की वो खामोश पुकार

जयपुर सिर्फ इमारतों और गलियों का शहर नहीं, लोगों का भी शहर है।
ये घटना सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि एक दर्द भी है — एक डर भी है — कि अब रात में यहां सिर्फ हवाएं नहीं, बल्कि खतरे भी चलने लगे हैं।
इस शहर की आत्मा जैसे कह रही हो — “मुझे सुरक्षित रहने दो, मुझे फिर से वो गुलाबी सुकून वाला शहर रहने दो।”


उम्मीद के साथ इंतजार

पुलिस ने गिरफ्तारी की बात कही है, जांच जारी है, टीमें लगाई गई हैं। पर लोगों को अब सिर्फ गिरफ्तारियां नहीं, बल्कि भरोसे की जरूरत है।
भरोसा कि रास्ते सुरक्षित हैं, भरोसा कि बच्चे बेख़ौफ़ बाहर जा सकेंगे, भरोसा कि जयपुर अभी भी महफूज़ शहर कहलाने लायक है।


निष्कर्ष

जयपुर की यह घटना सिर्फ एक फायरिंग नहीं थी — यह उस डर की दस्तक थी, जिसे लोग अपने शहर में नहीं देखना चाहते।
गोलियां चलीं, लोग भागे, सन्नाटा पसर गया — मगर साथ ही यह उम्मीद भी जग गई कि शायद अब प्रशासन और समाज दोनों इस समस्या को सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि एक सामाजिक बीमारी की तरह समझेंगे।
और शायद यही समझ इस शहर को फिर सुरक्षित, फिर शांत और फिर गुलाबी बना सकेगी।

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