गुरु-शिष्य कथा: बैर त्याग का उपदेश

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अखण्ड ज्योति मई 1999 से साभार
एक समय की बात है, एक गुरु और शिष्य मार्ग पर चलते हुए थक गए और विश्राम के लिए एक उपयुक्त स्थान पर रुक गए। जब शिष्य गहरी नींद में था, गुरु जाग रहे थे, तभी एक काला सर्प शिष्य की ओर सरसराता हुआ आया। गुरु ने सर्प को मार्ग देने कि लिए एक ओर हटाने का प्रयास किया, किन्तु सर्प बोला कि वह शिष्य को काटना चाहता है क्योंकि पूर्वजन्म में उसने सर्प का रक्त पिया था और उसे बहुत सताया था।गुरु ने सर्प को शाश्वत रहस्य समझाया कि आत्मा ही अपनी शत्रु है और बैर की परम्परा से कोई लाभ नहीं होगा।
सर्प ने कहा कि वह अज्ञानी नहीं है और बैर का बदला लिए बिना नहीं छोड़ेगा। गुरु ने सर्प को अपने शिष्य के बदले खुद को काटने को कहा, परन्तु सर्प ने इनकार कर दिया क्योंकि वह एक पवित्र पुरुष को काटकर नरक में नहीं जाना चाहता था।
गुरु ने सर्प को शिष्य का रक्त निकालकर देने का प्रस्ताव रखा, जिसे सर्प ने स्वीकार कर लिया। गुरु ने शिष्य की छाती पर चढ़कर उसके गले के पास चीरा लगाया और डोंगे में एकत्रित रक्त को सर्प को पिलाने लगा। शिष्य जाग गया, पर गुरुसत्ता को देखकर शांत बना रहा। सर्प के तृप्त होने पर वह चला गया और गुरु ने शिष्य के घाव पर वनौषधि की पट्टी बाँध दी।
जब गुरु ने शिष्य से उसकी गहरी नींद के बारे में पूछा, तो शिष्य ने कहा कि वह सब देख रहा था और उसे गुरु पर आस्था है। शिष्य ने कहा कि गुरु के हाथों उसका अनिष्ट नहीं हो सकता और उसने अपना सब कुछ गुरु को अर्पित कर दिया है। शिष्य के वचनों को सुनकर गुरु ने उसे आशीर्वाद दिया।