जैसे-जैसे तुम शांत होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम्हारे अशांत होने की क्षमता में भी वृद्धि होगी

जो साधक साधना कर रहे हैं, उनके लिए इस लेख का बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, अतः आज अथवा भविष्य में सभी साधकों के लिए सबसे अधिक मूल्यवान यह पोस्ट है।जीवन के प्रत्येक आयाम में विपरीत साथ-साथ ही बढ़ते हैं, प्रेम के साथ-साथ छाया की तरह शुरू हो जाती है, घृणा। ऐसे ही साधना में भी विपरीत शामिल हैं, जितना ऊंचा साधना का पहाड़ होगा, गिरने की उतनी ही गहरी खाई होगी। जितना पर्वत-शिखर और ऊंचा होने लगेगा, खाई और अधिक गहरी होने लगेगी। पर्वत-शिखर की ऊंचाई और खाई की गहराई , एक ही संकेत के दो पहलू हैं।

जितने-जितने आप समझदार होने लगोगे, उतनी-उतनी आपको अपने भीतर की मूर्खता दिखाई देने लगेगी
जितने-जितने आप समझदार होने लगोगे, उतनी-उतनी आपको अपने भीतर की मूर्खता दिखाई देने लगेगी। प्रत्येक साधक को ज्ञान के साथ-साथ अज्ञान का भी बोध होता है। इसमें न तो आश्चर्य करने की ज़रूरत है, क्योंकि यह स्वाभाविक रूप से है , विपरीत साथ-साथ बढते हैं और न चिंता में पड़ने की जरूरत है , क्योंकि यह स्वाभाविक रूप से है।

जैसे-जैसे तुम शांत होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम्हारे अशांत होने की क्षमता में भी वृद्धि होगी

जैसे-जैसे तुम शांत होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम्हारे अशांत होने की क्षमता में भी वृद्धि होगी। क्योंकि जितने तुम शांत होओगे, उतने संवेदनशील भी हो जाओगे, उतने सेंसिटिव हो जाओगे और उस संवेदना में छोटी-सी घटना भी बडा गहरा तहलका मचा देगी।जितना स्वस्थ आदमी हो, उतने ही उसके अस्वस्थ होने की क्षमता भी होती है। जितने ऊंचे चढ़ोगे, उतने गिरने का डर भी रहेगा, चढोगे ही नहीं , तो गिरने के डर का कोई प्रश्न भी नहीं है। जो ऊंचा जाता है , वह गिर सकता है। जो जमीन पर ही रेंगता है , वह गिरेगा भी तो गिरेगा कहां? इसलिए ये दोनों चीजें साथ-साथ चल रही हैं। और साधक को रोज-रोज ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।

आप की साधना, जितनी आगे बढ़ेगी, तो उतनी ही अधिक सावधानी की जरूरत बढेगी। सूचकांक तो प्रतिरूप सावधान है। शिव सूत्र में कहा गया है, कि जिस पुरुष को सत्य उपलब्ध होना है , वह सावधान होकर ऐसे चलता है, जैसे प्रतिपल शत्रुओं से घिरा हुआ है। वह एक-एक कदम ऐसे रखता है , सोचकर, विचारकर, जैसे कोई सर्दी के दिनों में बर्फीली नदी हो जहाँ एक-एक पग पर मृत्यु का खतरा हो।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। प्रेम अंकुरित होगा, तो घृणा भी साथ-साथ खड़ी है। अब थोड़े सावधान रहना। पहले तो जब प्रेम अंकुरित न हुआ था, तब आप घृणा को ही प्रेम समझकर जीए थे। अब जब प्रेम अंकुरित हुआ है, तो आपको पहली बार बोध भी आया है कि घृणा क्या है और अब तुम गिरोगे , तो बहुत दर्द होगा।
आनंद की थोड़ी बूंदा-बांदी होगी, तो शिकायतें भी बढ़ने लगेगी, क्योंकि जब अस्तित्व से प्रसाद मिलने लगेगा , तो आप और भी मांगने की आकांक्षा से भर जाओगे। आज मिलेगा, तो आनंद । कल नहीं मिलेगा, तो शिकायत शुरू होगी। आनंद के साथ-साथ शिकायत की खाई भी जुड़ी हुई है। सावधान रहना।

आनंद को बढ़ने देना और शिकायत से सावधान रहना। शिकायत तो बढ़ेगी, लेकिन आप उस खाई में गिरना मत,अंतराल के होने का मतलब यह नहीं है कि गिरना जरूरी है। शिखर ऊंचा होता जाता है , खाई गहरी होती जाती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि आपको अंतराल में गिरना ही पड़ेगा। केवल सावधानी बढ़ानी पड़ेगी।भिखारी निश्चित सोता है। उसको गार्ड रखने की जरूरत नहीं है। उसके पास कुछ चोरी हो जाने को कुछ नहीं है। सम्राट के पास बहुत कुछ है। थोड़ी सावधानी बरतें, तो ही बच पाएगा जो खजाना है, संपदा है, अन्यथा खो जाएगी।

प्रकृति का यह बड़ा सूक्ष्म खेल है, साधना का बारीक जगत है, बहुत नाजुक यात्रा है। इसलिए जब समझ आती है , तो मन कहता है, समझ गए। तुमने कहा, समझ गए, कि गई समझ, गिरे खाई में। क्योंकि समझ गया, यह तो अहंकार हो गया। अहंकार नासमझी का हिस्सा है जान लिया, तभी समझ आ गई।

साधक को ऐसे चलना होता है, जैसे कोई नट दो खंभों के बीच खिंची हुई रस्सी पर चलता है, ऐसे ही चलना है। प्रतिपल सम्हालना है। कदम – कदम सम्हालना है। एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि सम्हालना स्वभाव होगी। सम्हालना न विपरीत और सम्हले रहोगे। लेकिन अभी भी वह घड़ी नहीं है।कई साधकों के साथ यह अतीत में भी हो चुका है, आज कई साधक इसी अवस्था पर खड़े हैं। वैसे तो समय-समय पर मैं अपने साधकों को सावधान करता रहता हूँ, परन्तु, आज मैंने सोचा कि यदि आज इस स्थिति को आप सभी के सामने रख देता हूँ, तो हो सकता है, कि कुछ साधक स्वयं को देख पाएं और अपनी साधना के बहुमूल्य धन को बचा लें।

साधना करने के कारण मन खाली हो जाता है, उस समय यदि कोई नकारात्मक विचार सामने आता है, तो वह सीधा ही भीतर चला जाता है, जो साधक के लिए बहुत ही परेशानी का कारण बनता है। क्योंकि खाली मन में तुरंत वह विचार अपना घर बना लेता है। जिसको बाहर निकालना बहुत मुश्किल होता है।पहले के समय में साधक को गुरु आश्रमों में ही कड़े नियमों में बांधकर रखते थे। हर घड़ी उन पर गुरु की दृष्टि होती थी। किन्तु अब हम किसी आश्रम तो नहीं जा सकते, वह परिस्थितियां भी नहीं हैं। इसलिए गुरु के अथवा मार्गदर्शक के हमेशा सम्पर्क में रहें, केवल साधना संबंधी बातें ही करें, अधिक से अधिक साधना करें।

इसके अतिरिक्त, ऐसे में साधक को और क्या करना तथा क्या नहीं करना चाहिए? सबसे पहले कोई ऐसा विचार, जो किसी अन्य व्यक्ति के विषय में हो, बहुत सावधानी पूर्वक अवलोकन करना है, उसको महत्व नहीं देना है। साधक गर्भवती महिला की भांति होता है, जिसको प्रत्येक पग पर बहुत सावधानी रखनी पड़ती है, थोड़ी से असावधानी, बहुत बड़ी हानि कर सकती है।

जितना सम्भव हो उतना मौन रहें। यदि जरुरी हो तभी बातचीत करें, मनोरंजन करने में भी थोड़ी सी असावधानी से आपको बहुत हानि सकती है। इसलिए हमेशा स्वस्थ मनोरंजन करें, चुगली बुराई के पारिवारिक सीरियल न देखें जिनमे हिंसा इत्यादि हो, किसी अन्य के विषय में नकारात्मक विचार से आपकी साधना की पूरी पूंजी खो सकती है।

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