रचयिता को ही नसीब नहीं हुआ राष्ट्रध्वज

1
WhatsApp Image 2024-08-10 at 22.42.30_aba5e5a6

हर घर तिरंगा के पावन दिन पर आज यह सियासी दुखांतिका है, राष्ट्रीय त्रासदी भी। जिन्हें नाज है हिन्द पर वे सभी जान ले। राष्ट्रध्वज के रुपरेखाकार पिंगली वैंकय्या एक तेलुगुभाषी निर्धन स्कूल मास्टर थे। वे कंगाली में जन्में (2 अगस्त 1876) : सागरतटीय मछलीपत्तनम, आंध्र प्रदेश) तथा अभाव में पले। इस विप्र के शवदाह में पर्याप्त ईधन नहीं मिला। उनका अधूरा ख्वाब था कि तिरंगे में लपेटकर उनकी लाश ले जायी जाये। आज (10 अगस्त) मीडिया और नरेन्द्र मोदी से लेकर सभी उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

वैंकय्या ने जीवन में कई ज्वारभाटा देखे। मेधावी छात्र थे। लाहौर के वैदिक महाविद्यालय में उर्दू और जापानी के अध्यापक रहे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक डिग्री ली। मगर भारत लौटकर आये तो निजी रेलवे कंपनी में जीविका पायी। लखनऊ में भी एक शासकीय नौकरी की। उनके रोजगार में विविधता रही। भूविज्ञान तथा कृषि क्षेत्र में निष्णात रहे। खदानों के जानकार रहे। फिर आयी उनके जीवन की विलक्षण बेला। ब्रिटिश सेना का दक्षिण अफ्रीका में बोयर युद्ध हुआ। भारतीय लोग भी वहीं गये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण सैनिक था मोहनदास कर्मचन्द गांधी। वे चिकित्सक (स्वयं सेवक) की भूमिका में थे। तभी वैंकय्या भी ब्रिटिश सैनिक के रोल में गये। गांधीजी से भेंट हुयी, परिचय हुआ। फिर भारत में राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में दोनों में प्रगाढ़ता सर्जी।

तभी का किस्सा है। चालुक्यों की गौरवमीय राजधानी रही काकीनाडा (गोदावरी तटीय) की घटना है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन (26 दिसंबर 1923) हुआ। यह चालुक्यों के सम्राट पुलकेशिन से जुड़ा था। यहीं वैंकय्या ने कांग्रेस में शरीक होकर राष्ट्रीय ध्वज के प्रारुप पर चर्चा किया था। यह अधिवेशन दो घटनाओं के लिये ऐतिहासिक था। यहीं मौलाना मोहम्मद अली ने कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में वन्दे मातरम् गाने पर एतराज किया था। वाक आउट किया। तभी से यह राष्ट्रगान अधूरा हो गया। इसी अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया कि स्वतंत्रता के बाद भारत का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया जायेगा।

सर्वाधिक निर्धार जब महत्वपूर्ण था कि काकीनाडा अधिवेशन में ही वैंकय्या ने राष्ट्रध्वज की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका यह विचार गांधीजी को बहुत पसन्द आया। गांधीजी ने उन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने का सुझाव दिया।

पिंगली वैंकय्या ने पाँच सालों तक तीस विभिन्न देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया और अंत में तिरंगे के लिए सोचा। विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पिंगली वैंकय्या महात्मा गांधी से मिले थे और उन्हें अपने द्वारा डिज़ाइन लाल और हरे रंग से बनाया हुआ झंडा दिखाया। तब तक ब्रिटिश यूनियन जैक ध्वजा ही कांग्रेस सम्मेलनों में फहरती थी। मगर बाद में तिरंगा फहरने लगा। देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में दो रंगों वाले अंग्रेजी झंडों का प्रयोग बंद हो गया। लेकिन उस समय इस झंडे को कांग्रेस की ओर से अधिकारिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिली थी। इस बीच जालंधर के हंसराज ने झंडे में चक्र चिन्ह बनाने का सुझाव दिया। इस चक्र को प्रगति और आम आदमी के प्रतीक के रूप में माना गया। बाद में गांधी जी के सुझाव पर पिंगली वैंकय्या ने शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया। बाद में 1931 में कांग्रेस ने कराची के अखिल भारतीय सम्मेलन में केसरिया, सफ़ेद और हरे तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। फिर राष्ट्रीय ध्वज में इस तिरंगे के बीच चरखे की जगह अशोक चक्र ने ले ली।
राष्ट्रध्वज वैंकय्या द्वारा निरुपित हो जाने से गीत का प्रस्ताव आया इसी की पंक्ति थी जो हमलोग गुलाम भारत (1945-46) में स्कूलों में गाते थे।

ध्वज गीत की रचना श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने की थी। पद वाले इस मूल गीत से बाद में कांग्रेस ने तीन पद (पद संख्या 1, 6 व 7) को संशोधित करके ‘ध्वजगीत’ के रूप में मान्यता दी। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ बल्कि अनेक नौजवानों और नवयुवतियों के लिये देश पर मर मिटनें हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना : “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम सुधा बरसाने वाला। वीरों को हरषाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा।”

जब 9 अगस्त 1942 में गवालिया टैंक मैदान मुम्बई (अगस्त क्रांति मैदान) में सारे नेताओं के कैद हो जाने पर क्रांतिकारी अरुणा आसफ अली ने यह ध्वज फहराया था। वे भी गुनगुना रही थी : “इसकी शान न जाने पाये। चाहे जाने भले ही जाये।”

मगर इतिहास की विडंबना है कि भारी विरोध के बाद भी तिरंगा सत्तारुढ कांग्रेस का पार्टी झण्डा भी हो गया। आम जन को भ्रम होता है। राष्ट्रीय कांग्रेस का भारत को भ्रम में डालने का यह एक और किस्सा है। जैसे गांधी उपनाम का नेहरुवंश वालो का इस्तेमाल धोखा ही हुआ।

के. विक्रम. राव

वरिष्ठ पत्रकार

1 thought on “रचयिता को ही नसीब नहीं हुआ राष्ट्रध्वज

  1. Good day! Do you know if they make any plugins to assist with SEO?

    I’m trying to get my site to rank for some targeted keywords but
    I’m not seeing very good results. If you know of any please share.
    Many thanks! You can read similar text here: Wool product

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *