जन – जन के हृदय प्रिय राम : मर्यादा पुरूषोत्तम राम

0
जन – जन के हृदय प्रिय राम : मर्यादा पुरूषोत्तम राम
  • राजा से प्रजा, फिर वे नर से नारायण बन जाते हैं
  • बापू का अनुभव था कि जीवन के अँधेरे, निराश क्षणों में रामचरित मानस में उन्हें सुकून मिलता
  • गांधी और लोहिया ने सुझाया था कि हर धर्म को युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनर्समीक्षा होनी चाहिए

 

राम की कहानी युगों से भारत को संवारने में उत्प्रेरक रही है। इसीलिए राष्ट्र के समक्ष सुरसा के जबड़ों की भांति फैले हुए संकटों की राम कहानी समझना और उनका मोचन करना इसी से मुमकिन है। शर्त है राम में रमना होगा, क्योंकि वे “जन रंजन भंजन सोक भयं ” हैं। बापू का अनुभव था कि जीवन के अँधेरे, निराश क्षणों में रामचरित मानस में उन्हें सुकून मिलता था। राममनोहर लोहिया ने कहा था कि “राम का असर करोड़ों के दिमाग पर इसलिए नहीं है कि वे धर्म से जुड़े हैं, बल्कि इसलिए कि जिंदगी के हरेक पहलू और हरेक कामकाज के सिलसिले में मिसाल की तरह राम आते हैं। आदमी तब उसी मिसाल के अनुसार अपने कदम उठाने लग जाता है।” इन्हीं मिसालों से भरी राम की किताब को एक बार विनोबा भावे ने सिवनी जेल में ब्रिटेन में शिक्षित सत्याग्रही जे. सी. कुमारप्पा को दिया और कहा, “दिस रामचरित मानस ईज बाइबिल एण्ड शेक्सपियर कम्बाइंड।”

गांधी और लोहिया ने सुझाया भी था कि हर धर्म की बातों की युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनर्समीक्षा होनी चाहिए

लेकिन इन दोनों अंग्रेजी कृतियों की तुलना में राम के चरित की कहानी आधुनिक है, क्योंकि हर नयी सदी की रोशनी में वह फिर से सुनी, पढ़ी और विचारित होती है तथा तरोताजा हो जाती है। गांधी और लोहिया ने सुझाया भी था कि हर धर्म की बातों की युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनर्समीक्षा होनी चाहिए| गांधीजी ने लिखा था, “कोई भी (धार्मिक) त्रुटि शास्त्रों की दुहाई देकर मात्र अपवाद नहीं करार दी जा सकती है।” (यंग इण्डिया, 26 फरवरी 1925)। बापू ने नए जमाने के मुताबिक कुरान की भी विवेचना का जिक्र किया था। लोहिया तो और आगे बढ़े उन्होंने मध्यकालीन रचनाकार संत तुलसीदास के आधुनिक आलोचकों को चेताया : “मोती को चुनने के लिये कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, और न कूड़ा साफ़ करते समय मोती को फेंक देना।” रामकथा की उल्लास-भावना से अनुप्राणित होकर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की सोची थी। उसके पीछे दो प्रकरण भी थे। कामदगिरी के समीप स्फटिक शिला पर बैठकर एक बार राम ने सुंदर फूल चुनकर काषाय वेशधारिणी सीता को अपने हाथों से सजाया था। (अविवाहित) लोहिया की दृष्टि में यह प्रसंग राम के सौन्दर्यबोध और पत्नीव्रता का परिचायक है, जिसे हर पति को महसूस करना चाहिए। स्वयं लोहिया ने स्फटिक शिला पर से दिल्ली की ओर देखा था। सोचा भी था कि लंका की तरह केंद्र में भी सत्ता परिवर्तन करना होगा। तब नेहरू कांग्रेस का राज था। फिर लोहिया को अपनी असहायता का बोध हुआ था, रावन रथी, विरथ रघुवीरा की भांति असमान मुकाबला था, हालांकि लोहिया के लोग रथी हुए उनके निधन के बाद।

शायद गांधीजी जनता के समक्ष राम के मर्यादित उदहारण को पेश करना चाहते हों

महात्मा गांधी के बारे में एक अचम्भा अवश्य होता है। द्वारका के निकट सागर किनारे (पोरबंदर) में वे पैदा हुए पर जीवनभर सरयू तटी राम के ही उपासक रहे। वे द्वाराकाधीश को मानों भूल ही गये। शायद इसीलिए कि गांधीजी जनता के समक्ष राम के मर्यादित उदहारण को पेश करना चाहते हों। रामराज ही उनके सपनों का भारत था, जहाँ किसी भी प्रकार का ताप नहीं था, शोक न था।आमजन का राम से रिश्ता दशहरा में नए सिरे से जुड़ता है।

 

रामलीला एक लोकोत्सव है जिसमें राम की जन पक्षधरता अभिव्यक्त होती है। राजा से प्रजा, फिर वे नर से नारायण बन जाते हैं। सीता को चुराकर भागने वाले रावण से शौर्य पूर्वक लड़ने वाले गीध जटायु को अपनी गोद में रखकर राम उसकी सुश्रुषा करते हैं, फिर उसकी अंत्येष्टि करते हैं जैसे वह उनका कुटुम्बी जन हों। रामकथा के टीकाकार जितना भी बालि के वध की व्याख्या करें, वस्तुतः राम का संदेशा, उनकी मिसाल, असरदार है कि न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में तटस्थ रहना अमानवीय है। अपनी समदृष्टि, समभाव के बावजूद राम को वंचित और शोषित सुग्रीव प्यारा है। सत्ता पाकर सुग्रीव पम्पा नगर के राज प्रासाद में रहते हैं मगर वनवासी राम किष्किन्धा पर्वत पर कुटी बनाकर रहते हैं। ऐसी गठबंधन की सेना जो न सियासत में, न समर भूमि में कभी दिखी है। विजय के बाद आभार ज्ञापन में वानरों से राम कहते हैं : “तुम्हरे बल मैं रावण मारेव।” वाहवाही लूटने की लेशमात्र भी इच्छा नहीं थी इस महाबली में।

सुदूर दक्षिण के सागर तट पर शिवलिंग की स्थापना की

निष्णातों के आकलन में भारत को राष्ट्र का आकर राम ने दिया। सुदूर दक्षिण के सागर तट पर शिवलिंग की स्थापना की और निर्दिष्ट किया कि गंगा जल से जो व्यक्ति रामेश्वरम के इस लिंग का अभिषेक करेगा उसे मुक्ति मिलेगी। अब हिन्दुओं में मोक्ष प्राप्ति की होड़ लग गई, मगर इससे हिमालय तथा सागर तट तक भौगोलिक सीमायें भले ही तय हो मगर भारतीय संविधान बनने के सदियों पूर्व, (तब वोट बैंक भी नहीं होते थे) वनवासी राम ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को अपना कामरेड बनाया, मसलन निषादराज गुह और भीलनी शबरी। आज के अमरीका से काफी मिलती जुलती अमीरों वाली लंका पर रीछ-वानरों द्वारा हमला करना और विजय पाना इक्कीसवीं सदी के मुहावरे में पूंजीवाद पर सर्वहारा की फतह कहलाएगी। सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों का लेखा-जोखा सर्वप्रथम परशुराम की कुल्हाड़ी (वन उपज पर अवलम्बित समाज) फिर धनुषधारी राम (तीर द्वारा व्यवस्थित समाज) और हल लिये बलराम (कृषि युग का प्रारंभ) से निरूपित होता है।

रावण के पिता विश्वेश्रवा गाजियाबाद में दूधेश्वरनाथ मंदिर क्षेत्र के निवासी थे

राम को आधुनिकता के प्रिज्म में देखकर कहानीकार कमलेश्वर ने कहा था कि रामायण ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई है। (राही मासूम रजा पर गोष्ठी 20 अगस्त 2003 : जोकहरा गाँव, आजमगढ़)| यह निखालिस विकृत सोच है ,यह उपमा कुछ वैसे ही है कि रावण और राम मूलतः पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे तो यह पूरब-पश्चिम की जंग थी। रावण के पिता विश्वेश्रवा गाजियाबाद में दूधेश्वरनाथ मंदिर क्षेत्र के निवासी थे। आजकल नोयडा प्रशासन इसपर शोध भी करा रहा है। भला हुआ कि अवध के राम और गाजियाबाद के रावण अब उत्तर प्रदेश में नहीं हैं, वर्ना राज्य के विभाजन के आन्दोलन का दोनों आधार बन जाते। कमलेश्वर और उनके हम ख्याल वाले भूल गए कि राम का आयाम उनके नीले वर्ण की भांति था। आसमान का रंग नीला होता है। उसी की तरह राम भी अगाध, अनन्त, असीम हैं। इसीलिए आमजन के प्रिय हैं।

लेखक के. विक्रम राव 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *