राजभवन न हुआ ! IPL का मैदान हो गया !!

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के. विक्रम राव 

नामित राज्यपाल बनाम निर्वाचित मुख्यमंत्री के विवाद पर उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ (न्यायमूर्ति द्वय जे.बी पार्डीवाला और आर. महादेवन) ने कल ( 08 अप्रैल 2025) राज्यपाल आरएन रवि को चेतावनी दी है कि संविधान के मुताबिक काम करें।
कौन हैं यह रवि साहब ? पटना में जन्मे, 1976 में पुलिस सेवा में भर्ती हुए, वे केरल काडर में एक दशक तक कार्यरत रहें। उनकी छवि थानेदार टाइप की ही रही। उन्होंने राजीव गांधी हत्याकांड के दोषी एजी पेरारिवलन की सजा माफी याचिका को राष्ट्रपति के पास भेजा था। रवि के इस कदम पर सवाल उठाते हुए आलोचकों ने कहा था कि इस तरह का कदम देश के “संघीय ढांचे” की “जड़ों” पर प्रहार करता है।
प्रतीत होता है कि राज्यपाल पहले वॉलीबॉल की गेंद होता था। अब उसका आकार IPL क्रिकेट की गेंद की भांति छोटा हो गया। संविधान के इस हीरक जयंती वर्ष में राज्यपाल रवि की हरकत ने केंद्र और राज्य के संबंधों से जुड़े बुनियादी पहलुओं का मसला उठाया है।
अतः प्रश्न उठता है कि मनोनीत राज्यपाल और निर्वाचित मुख्यमंत्री के अधिकारों की सीमा और दायित्व की मर्यादा की दास्तां कहां शुरू और कहां खत्म होनी चाहिए ? मगर संवैधानिक संकट उस समय गहराता है जब परोक्ष कारणों से कोई राज्यपाल अल्पमत वाले को मुख्यमंत्री नियुक्त करे, या बहुमत वाले मंत्रिमण्डल को बर्खास्त कर दें या विधानसभा ही भंग कर दें। इसीलिए नये सिरे से राज्य-केन्द्र सम्बन्धों के सन्दर्भ में राज्यपाल की भूमिका पर बहस और समीक्षा होनी चाहिए। सवाल सीधा और कड़ा है कि आखिर क्यों अब तक 65 बार राज्यों में सरकारें पदच्युत की गयी। अर्थात् संविधान की धारायें 154, 163 और 356 पर विचार करना होगा। यह अपरिहार्य इसलिए भी हो गया है कि संविधान सभा में तत्कालीन विधि मंत्री डा. भीमराव अम्बेडकर ने आशा व्यक्त की थी कि राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। संविधान बड़ा लचीला बना है, इसलिए व्यावहारिक दिक्कतें कम ही पड़ेंगी। उनकी उक्ति थी कि ‘‘यदि कोई गड़बड़ी हो भी जाती है तो जिम्मेदार संविधान नहीं, वरन (क्रियान्वयन करने वाला) आदमी होगा। तो क्या आदमी (इस परिवेश में राज्यपाल) बुरा निकला? अनुभव क्या कहता है? लखनऊ में रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर संकट उपजाया था,उच्चतम न्यायलय ने संभाला अटल जी को उपवास पर बैठना पड़ा था । विधानसभा ने एक ही साथ दो मुख्यमंत्री देखे थे।
भारतीय गणराज्य में राज्यपाल द्वारा केन्द्रीय अधिकारों का पहला दुरूपयोग जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ था। केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी का स्पष्ट बहुमत था, बल्कि मानव इतिहास में पहली बार विश्व में अगर मुक्त मतदान द्वारा कम्युनिस्ट सरकार कहीं बनी थी तो वह ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की थी। तथाकथित जनान्दोलन, जो वस्तुतः हिन्दू नायर जाति और ईसाई पादरियों की साझा साम्प्रदायिक मुहिम थी, का 1958 में बहाना बनाकर कांग्रेस नेता इन्दिरा गांधी के दबाव में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नम्बूद्रिपाद की निर्वाचित, बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया, राष्ट्रपति शासन थोप दिया। तब केरल के राज्यपाल थे डॉ. बी. रामकृष्ण राव (बाद में यूपी के भी बने) नेहरू ने हैदराबाद राज्य के इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री को रेड्डी गुट के दबाव में हटाकर त्रिवेन्द्रम राज भवन भेज दिया था।
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल डा. बी. गोपाल रेड्डि ने चौधरी चरण सिंह की सरकार को साठ के दशक में बर्खास्त कर डाला। रोमेश भंडारी ने तो और अभूतपूर्व हरकत की। भाजपाई कल्याण सिंह की सरकार को हटा दिया। आधी रात को कांग्रेसी (अधुना भाजपाई सांसद) जगदंबिका पाल को शपथ दिलायी। अटल बिहारी वापजेयी विरोध में अनशन पर बैठ गये। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा में उन्हें बहुमत सिद्ध का आदेश दिया। एक ही सदन में दो मुख्यमंत्री एक साथ थे, क्या नजारा था! इससे दुखद दृश्य टाइम्स आफ इंडिया का संवाददाता होने के नाते मैंने स्वयं अगस्त 1984 में आंध्र प्रदेश देखा था। तब हिमाचल से हैदराबाद पधारे ठाकुर राम लाल ने तेलुगुदेशम के एन.टी रामा राव को तीन चौथाई बहुमत के बावजूद हटा दिया था। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी। भला हो डा. शंकर दयाल शर्मा का जो राज्यपाल बनकर आये और कानून का राज पुरर्स्थापित किया।
इन सब घटनाओं से अधिक दयनीय तो राज्यपालों की बर्खास्तगी रही, वह भी थोक में। सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार (मोरारजी देसाई वाली) ने कांग्रेस मुख्यमंत्रियों तथा इन्दिरा गांधी द्वारा नामित राज्यपालों को हटा दिया था। वापस सत्ता पर लौटते ही फरवरी 1980 में इन्दिरा गांधी ने भी ऐसा किया। इनमें तमिलनाडु के सर्वोदयी राज्यपाल प्रभुदास बालूभाई पटवारी थे। गांधीवादी और मोरारजी देसाई के सहयोगी को सशरीर राजभवन से बाहर किया। पटवारी जी बड़ौदा डाइनामाइट केस में अभियुक्त नंबर चार पर थे। जार्ज फर्नाडिस प्रथम और द्वितीय पर मैं था आरोपियों की सूची में। राज्यपालों की दुर्दशा की पीड़ा से सर्वाधिक भुगतने वाले पंडित विष्णुकांत शास्त्री थे। उन्हें 2 जुलाई 2004 को सोनिया- कांग्रेस सरकार ने रातो – रात बर्खास्त कर डाला था। इस ज्ञानी, धर्म निष्ठ राज्यपाल से उस रात मैं लखनऊ राजभवन में मिलने गया था। राजनीतिक असहिष्णुता के शिकार शास्त्री जी को दूसरे दिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव स्टेशन तक पहुंचाने गये। मैंने उस बर्खास्त राज्यपाल के चरणस्पर्श किये थे जो मैं केवल अपने पूज्य अध्यापकों का करता रहा हूं।
जग हँसाई कराने वाले भारत के शीर्ष सत्ता केंद्र में ऐसा व्यवहार कितना क्षोभनीय है ? विरमगाम रेल प्लेटफार्म पर चाय बेचने के बाद राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन हुये, सरल जननायक नरेंद्र मोदी से अपेक्षा है कि राष्ट्रीय मर्यादा और गौरव को संजो कर वे रखेंगे।

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